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Thursday, April 1, 2021

ईमान क्या है? (Imaan Kya Hai?)

 

ईमान क्या है?

शेख़ ग़ुलाम मुस्तफ़ा ज़हीर अमनपुरी हफ़िज़ल्लाह

क़ुरआने करीम और हदीसे नबविया में लफ़्ज़ ईमान कई मर्तबा आया है क्यूंकि यही दीन की असल और मज़हब की असास है, इसी की बदौलत लोग़ गुमराही के अंधेरों से हक़ की रौशनी की तरफ़ राह पाते हैं, इसी से ख़ुशबख़्तों और बदबख़्तों में फ़र्क़ होता है, और दोस्त और दुश्मन की तमीज़ होती है, पूरा दीन इसी के ताबेअ है, लिहाज़ा हर मुसलमान के लिए हक़ीक़ते ईमान को जानना बहुत ज़रूरी है

क़ुरआन व सुन्नत में हक़ीक़ते ईमान का काफ़ी व शाफ़ी बयान है, इससे हट कर किसी और की वज़ाहत की ज़रुरत नहीं।

हमारे असलाफ़, सहाबा व ताबईन किसी भी वज़ाहत के सिलसिले में रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के फ़रमानों से अपना दामन भर लेते थे, क्यूंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही शारेह व मुफ़स्सिरे क़ुरआन हैं।

आइये पहले तो ईमान को जानने की अहमियत का अंदाजा लगायें।

हाफ़िज़ इब्ने रजब रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

هَذِهِ الْمَسَائِلُ - أَعْنِي مَسَائِلَ الْإِسْلَامِ وَالْإِيمَانِ وَالْكُفْرِ وَالنِّفَاقِ - مَسَائِلُ عَظِيمَةٌ جِدًّا، فَإِنَّ اللَّهَ عَلَّقَ بِهَذِهِ الْأَسْمَاءِ السَّعَادَةَ وَالشَّقَاوَةَ، وَاسْتِحْقَاقَ الْجَنَّةِ وَالنَّارِ، وَالِاخْتِلَافَ فِي مُسَمَّيَاتِهَا أَوَّلَ اخْتِلَافٍ وَقَعَ فِي هَذِهِ الْأُمَّةِ، وَهُوَ خِلَافُ الْخَوَارِجِ لِلصَّحَابَةِ، حَيْثُ أَخْرَجُوا عُصَاةَ الْمُوَحِّدِينَ مِنَ الْإِسْلَامِ بِالْكُلِّيَّةِ، وَأَدْخَلُوهُمْ فِي دَائِرَةِ الْكُفْرِ، وَعَامَلُوهُمْ مُعَامَلَةَ الْكَفَّارِ، وَاسْتَحَلُّوا بِذَلِكَ دِمَاءَ الْمُسْلِمِينَ وَأَمْوَالَهُمْ، ثُمَّ حَدَثَ بَعْدَهُمْ خِلَافُ الْمُعْتَزِلَةِ وَقَوْلُهُمْ بِالْمَنْزِلَةِ بَيْنَ الْمَنْزِلَتَيْنِ، ثُمَّ حَدَثَ خِلَافُ الْمُرْجِئَةِ، وَقَوْلُهُمْإِنَّ الْفَاسِقَ مُؤْمِنٌ كَامِلُ الْإِيمَانِ

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इस्लाम, ईमान, कुफ़्र और निफ़ाक़ बहुत बड़े बड़े मसाइल हैं, क्यूंकि अल्लाह तआला ने इन्ही अल्फ़ाज़ के साथ सआदत व बदबख़्ती और जन्नत व जहन्नम का नाता जोड़ा है, इनके हक़ाइक़ में इख़्तिलाफ़ ही इस उम्मत का सबसे पहला इख़्तिलाफ़ था, वो इस तरह कि ख़ारजियों ने सहाबा ए किराम की मुख़ालिफ़त की, तो गुनाहगार मोहिदों को उन्होंने बिल्कुल इस्लाम से ख़ारिज करके दायरे कुफ़्र में दाख़िल कर दिया और उनसे काफ़िरों का सा सुलूक किया, यूं उन्होंने मुसलमानों के माल व जान को हलाल क़रार दिया, फिर मोअतज़ला का फ़ितना उठा, उन्होंने की अजीब व ग़रीब मन्तिक़ पेश की, इसके बाद मुरजिआ ने जन्म लिया और कहा कि फ़ासिक़ शख़्स भी कामिलुल ईमान मोमिन है (जामिउल उलूम वल हिकम  पेज नंबर 27)

सहाबा व ताबईने किराम पर मुशतमिल असलाफ़े उम्मत का इजमाई फ़ैसला यह है कि ईमान (क़ौल व अमल) (ज़बान व दिल के) क़ौल और (दिल व जिस्म के हिस्से के) अमल का नाम है बहुत सारे आइमा किराम से यही मनक़ूल है

हाफ़िज़ बग़वी फ़रमाते हैं:

اتَّفَقَتِ الصَّحَابَةُ وَالتَّابِعُونَ، فَمَنْ بَعْدَهُمْ مِنْ عُلَمَاءِ السُّنَّةِ عَلَى أَنَّ الأَعْمَالَ مِنَ الإِيمَانِ........... إِنَّ الإِيمَانَ قَوْلٌ، وَعَمَلٌ، وَعَقِيدَةٌ

सहाबा, ताबईन और बाद के मुहद्दिसीन का इजमाई व इत्तिफ़ाक़ी फ़ैसला है कि आमाल ईमान में दाख़िल हैं...........उनका कहना है कि ईमान इक़रार, अमल और तसदीक़ का नाम है (शरह अस-सुन्नाह:1/38)

हसन बसरी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

إِنَّ الْإِيمَانَ لَيْسَ بِالتَّحَلِّي وَلَا بِالتَّمَنِّي، إِنَّمَا الْإِيمَانُ مَا وَقَرَ فِي الْقَلْبِ، وَصَدَّقَهُ الْعَمَلُ

ईमान ज़ाहिरी सजावट या बातिनी आरज़ू का नाम नहीं, बल्कि ईमान वो है, जो दिल में जगह पकड़े और अमल उसकी तसदीक़ करे (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा;13/504, इसकी सनद हसन है)

ख़ालिद बिन शौज़ब रहमतुल्लाह अलैह कहते हैं कि मैंने फ़रक़द संजी को देखा, वो ऊन का जुब्बा पहने हुए थे, हसन बसरी रहमतुल्लाह अलैह ने उसे जुब्बे से पकड़ा और दो या तीन बार फ़रमाया: इब्ने फ़रक़द!

إِنَّ التَّقْوَى لَيْسَ فِي هَذَا الْكِسَاءِ إِنَّمَا التَّقْوَى مَا وَقَرَ فِي الْقَلْبِ وَصَدَّقَهُ الْعَمَلُ وَالْفِعْلُ

तक़वा (ईमान) इस चादर में नहीं, बल्कि तक़वा (ईमान) वो है, जो दिल में पुख़्ता हो जाए और (ज़बान व दिल का) अमल (तसदीक़ व इक़रार) और (जिस्म के हिस्से का) फ़ेल उसकी तसदीक़ करे(अज़-ज़वाइद लिअब्दिल्लाह अलज़-ज़ुहद लिअबी अहमद बिन हंबल: 1522, इसकी सनद हसन है)

ईमान, इस्लाम और दोनों का आपस में तआल्लुक़:

किताब व सुन्नत की नुसूस में ईमान व इस्लाम का लफ्ज़ कभी तो इकठ्ठा आता है और कभी उनको अलग अलग ज़िक्र किया गया, सवाल पैदा होता है कि क्या दोनों का एक ही मतलब है या यह दोनों अलग अलग चीज़ें हैं?

इसमें अहले इल्म का इख़्तिलाफ़ है, याद रहे कि इस मसअले में इख़्तिलाफ़ सहाबा व ताबईन के बाद शरू हुआ, उनसे मनक़ूल आसार बताते हैं कि उनका मुत्तफ़क़ा फ़ैसला यही था कि यह दोनों अलग अलग चीज़ें हैं यानी इस्लाम और है और ईमान और।

शेख़ुल इस्लाम इब्ने तैयमिया रहमतुल्लाह अलैह मुहम्मद बिन नस्र मरवज़ी रहमतुल्लाह का रद्द करते हुए फ़रमाते हैं, जोकि दोनों को एक समझते थे:

هو لم ينقل عن أحد من الصحابة والتابعين لهم بإحسان ولا أئمة الإسلام المشهورين أنه قالمسمى الإسلام هو مسمى الإيمان كما نصر، بل ولا عرفت أنا أحدًا قال ذلك من السلف

वो (मुहम्मद इब्न नस्र रहमतुल्लाह अलैह) अपने इख़्तियार किये हुए मज़हब पर सहाबा व ताबईन या इस्लाम के मशहूर आइमा किराम में से किसी एक का भी क़ौल नक़ल नहीं कर पाए कि उसने इस्लाम और ईमान की हक़ीक़त को एक क़रार दिया हो, बल्कि मेरे इल्म में असलाफ़ में से किसी एक ने भी यह बात नहीं कही(अल-ईमान, पेज नंबर 349)

ईमान व इस्लाम में फ़र्क़ तो सहाबा व ताबईन का इजमाई क़ौल है, ज़्यादातर अहले सुन्नत वल जमात इसी पर क़ायम हैं

जबकि उनको एक कहने वालों में इमाम बुख़ारी, इमाम मुहम्मद बिन नस्र मरवज़ी, इमाम इब्ने मुंदाह और हाफ़िज़ इब्ने अब्दुल बर्र रहमतुल्लाह अलैहिम आदि शामिल हैं।

दलाइल:

ईमान व इस्लाम को दो अलग अलग हक़ाइक़ कहने वालों के पास किताब व सुन्नत से दलाइल हैं, कुछ एक मुलाहिज़ा फ़रमाएं:

फ़रमाने बारी तआला है:

قَالَتِ الْاَعْرَابُ اٰمَنَّا١ؕ قُلْ لَّمْ تُؤْمِنُوْا وَ لٰكِنْ قُوْلُوْۤا اَسْلَمْنَا وَ لَمَّا یَدْخُلِ الْاِیْمَانُ فِیْ قُلُوْبِكُمْ١ؕ وَ اِنْ تُطِیْعُوا اللّٰهَ وَ رَسُوْلَهٗ لَا یَلِتْكُمْ مِّنْ اَعْمَالِكُمْ شَیْـًٔا١ؕ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِیْمٌ۝۱۴

ऐराबियों ने कहा कि हम ईमान ले आये हैं, (ऐ नबी!) आप कह दीजिये कि तुम ईमान नहीं लाये, बल्कि कहो कि हम इस्लाम ले आयें और अभी तक ईमान तुम्हारे दिलों में दाख़िल नहीं हुआ(अल-हुजुरात:14)

हाफ़िज़ इब्ने कसीर रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

اسْتُفِيدَ مِنْ هَذِهِ الْآيَةِ الْكَرِيمَةِأَنَّ الْإِيمَانَ أَخَصُّ مِنَ الْإِسْلَامِ كَمَا هُوَ مَذْهَبُ أَهْلِ السُّنَّةِ وَالْجَمَاعَةِ

इस आयते करीमा से मालूम हुआ कि ईमान, इस्लाम से ज़्यादा ख़ास चीज़ है, यही अहले सुन्नत वल जमात का मज़हब है (तफ़सीर इब्ने कसीर:7/327)

सय्यदना साद बिन अबी वक्क़ास रज़ियाल्लाहू अन्हु बयान करते हैं:

أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَعْطَى رَهْطًا وَسَعْدٌ جَالِسٌ، فَتَرَكَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ رَجُلًا هُوَ أَعْجَبُهُمْ إِلَيَّ، فَقُلْتُيَا رَسُولَ اللَّهِ مَا لَكَ عَنْ فُلاَنٍ فَوَاللَّهِ إِنِّي لَأَرَاهُ مُؤْمِنًا، فَقَالَ: «أَوْ مُسْلِمًا» فَسَكَتُّ قَلِيلًا، ثُمَّ غَلَبَنِي مَا أَعْلَمُ مِنْهُ، فَعُدْتُ لِمَقَالَتِي، فَقُلْتُمَا لَكَ عَنْ فُلاَنٍ؟ فَوَاللَّهِ إِنِّي لَأَرَاهُ مُؤْمِنًا، فَقَالَ: «أَوْ مُسْلِمًا». ثُمَّ غَلَبَنِي مَا أَعْلَمُ مِنْهُ فَعُدْتُ لِمَقَالَتِي، وَعَادَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، ثُمَّ قَالَ: «يَا سَعْدُ إِنِّي لَأُعْطِي الرَّجُلَ، وَغَيْرُهُ أَحَبُّ إِلَيَّ مِنْهُ، خَشْيَةَ أَنْ يَكُبَّهُ اللَّهُ فِي النَّارِ

रसूलुल्लाह सल्लालाल्हू अलैहि वसल्लम ने लोगों में (माले ग़नीमत) बाँटा एक आदमी को न दिया, वो मुझे अच्छा लगता था, मैंने कहा: अल्लाह के रसूल! आपने फ़ुलाँ को नहीं दिया, जबकि मैं उसे मोमिन ख़याल करता हूँ, आप सल्लालाल्हू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: मोमिन या मुसलमान। मैं कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर पहली बात दोहराई: आपने फ़ुलाँ को नहीं दिया, जबकि मैं उसे मोमिन ख़याल करता हूँ। आप सल्लालाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: मोमिन या मुसलमान। मैंने फिर पहली बात दोहराई, रसूलुल्लाह सल्लालाहू अलैहि वसल्लम ने भी पहला सा ही जवाब दिया, फिर फ़रमाया: साद! मैं एक शख़्स को माले ग़नीमत देता हूँ, जबकि दूसरा शख़्स मुझे इससे भी ज़्यादा प्यारा होता है, यह इस डर से कहीं ऐसा न हो कि (वो अपनी कमज़ोरी की वजह से इस्लाम से हट जाये और) अल्लाह तआला उसे औंधे मुंह दोज़ख़ में डाल दे(सही बुख़ारी: 27, सहीह मुस्लिम: 150)

इस मज़हब की एक मशहूर दलील हदीसे जिब्रील भी है कि जब जिब्रील अलैहिस्सलाम ने नबी करीम सल्लालाहू अलैहि वसल्लम से इस्लाम, ईमान और इहसान के बारे में अलग अलग सवाल किये।

शेख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

قد فرق النبي صلى الله عليه وسلم في حديث جبريل عليه السلام بين مسمى الإسلام ومسمى الإيمان ومسمىالإحسان

नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हदीसे जिब्रील में इस्लाम, ईमान और इहसान को अलग अलग क़रार दिया है(अल-ईमान, पेज नंबर 1)

इन दलाइल से साबित होता है कि ईमान व इस्लाम दो अलग अलग चीज़ें हैं और दोनों का अपना अपना मतलब है, लिहाज़ा इस्लाम ज़ाहिरी आमाल का नाम है, जबकि ईमान बातिनी आमाल का नाम है

कुछ अहले इल्म ने इस फ़र्क़ की बड़ी अच्छी वज़ाहत की है, वो यह कि दोनों में कभी कभी फ़र्क़ होता है और कभी कभी फ़र्क़ नहीं होता, लिहाज़ा जब यह दोनों अल्फ़ाज़ अलग अलग इस्तेमाल हों, तो दोनों का एक ही मतलब होता है और जब इकठ्ठे हों, तो अलग अलग मतलब देते हैं, जब दोनों इकठ्ठे हों, तो इस्लाम की तफ़सीर ज़ाहिरी आमाल और ईमान की बातिनी आमाल से होगी, जैसा कि हदीसे जिब्रील में है।

इसके विपरीत जब वो अलग अलग आयें, तो एक दुसरे को भी शामिल होते हैं, जैसा कि वफ़दे अब्दुल क़ैस वाली हदीस में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ईमान की तफ़सीर ज़ाहिरी आमाल से कर दी, और फ़रमाने बारी तआला {اِنَّ الدِّیْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ١} यक़ीनन अल्लाह तआला के नज़दीक दीन सिर्फ़ इस्लाम ही है(आले इमरान:19) भी इस पर शाहिद है

ख़ुलासा यह हुआ कि जब ईमान व इस्लाम एक जगह हों, तो अलग अलग मतलब देते हैं और जब अलग अलग इस्तेमाल हों, तो उनका मतलब एक होता है, हाफ़िज़ ख़त्ताबी, हाफ़िज़ बग़वी, हाफ़िज़ इब्नुस सलाह, अल्लामा इनबे तैमिया, हाफ़िज़ इब्ने रजब आदि रहमतुल्लाह अलैहिम इसी तफ़सील के क़ाइल हैं।

हाफ़िज़ ख़त्ताबी रहमतुल्लाह अलैह साद रज़ियल्लाहू अन्हु की ज़िक्र की हुई हदीस की शरह में लिखते हैं: इस हदीस का ज़ाहिर ईमान और इस्लाम में फ़र्क़ को ज़रूरी क़रार देता है, इस मसअले में अहले इल्म ने लम्बी बहस की है और बड़ी बड़ी किताबें लिख दी हैं, यहाँ इख़्तिसार की वजह से जो बात बयान करना ज़रूरी है, वो यह है कि ईमान और इस्लाम कभी कभी एक ही होते हैं, लिहाज़ा मुस्लिम को मोमिन कह दिया जाता है और मोमिन को मुस्लिम। ज़्यादातर यह अलग अलग होते हैं, लिहाज़ा हर मुस्लिम को मोमिन नही कहा जा सकता, जबकि हर मोमिन को मुस्लिम कहना दुरुस्त होता है, इन दोनों को एक मतलब में उस वक़्त इस्तेमाल किया जात है, जहाँ ज़ाहिर व बातिन बराबर हों, अगर ऐसा न हो, तो यह अलग अलग हो जाते हैं, इस मौक़े पर मुस्लिम का मतलब होगा: वो ज़ाहिरी तौर पर इत्तिबा करने वाला हो गया है, इस हदीस में औ मुस्लिमा इसी मतलब में है। फ़रमाने बारी तआला:

قَالَتِ الْاَعْرَابُ اٰمَنَّا١ؕ قُلْ لَّمْ تُؤْمِنُوْا وَ لٰكِنْ قُوْلُوْۤا اَسْلَمْنَا وَ لَمَّا یَدْخُلِ الْاِیْمَانُ فِیْ قُلُوْبِكُمْ

ऐराबियों ने कहा कि हम ईमान ले आये हैं, (ऐ नबी!) आप कह दीजिये, तुम ईमान नहीं लाये, बल्कि कहो कि हम मुसलमान हो गए(अल-हुजुरात:14) भी यही बताता है कि इस्लाम से मुराद ज़ाहिरी इताअत है, अरबी शायर उमय्या बिन अबी सल्त के इस शेअर से भी यही मालूम होता है:

أسلمت وجهي لمن أسلمتْ .... له الريح تحمل مزناً ثقالا

मेरा चेहरा उस ज़ात के लिए मुतीअ हो गया, जिसके लिय्हे भारी बादल उठाये हुए हुआ मुतीअ है(ऐलामुल हदीस1/160-161)

शेख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं:

तहक़ीक़ बात यही है, जिसे नबी अकरम सल्लालाल्हू अलैहि वसल्लम ने बयान कर दिया है, जब इस्लाम और ईमान के बारे में पुछा गया, तो आपने इस्लाम की तफ़सीर ज़ाहिर आमाल और ईमान के अरकान पाँच से की, हम भी जब ईमान व इस्लाम का इकठ्ठा ज़िक्र करें, तो वही  जवाब देना हमारे लिए ज़रूरी है, जो नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दिया, अलबत्ता जब इस्लाम का नाम अकेला लिया जाए, तो इसमें बिला-शुबा ईमान भी दाख़िल हो जाता है, यही बात हक़ है, और मुसलमान को क्या मोमिन भी कहा जा सकता है? इस बारे में बहस हो चुकी है। (अल-ईमान पेज नंबर 246)

हाफ़िज़ इब्ने रजब रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं:

हमारी ज़िक्र हुई तफ़सील से इख़्तिलाफ़ ख़त्म हो जाता है, यानी जब इस्लाम और ईमान में से हर एक का अलग अलग ज़िक्र किया जाए, तो उस वक़्त उनमें कोई फ़र्क़ नहीं होगा, अगर दोनों को इकठ्ठा ज़िक्र किया जाए, तो दोनों में फ़र्क़ होगा, वो यह कि ईमान दिल की तसदीक़, इक़रार और मारिफ़त का नाम है, जबकि इस्लाम बन्दे की अल्लाह के सामने ज़ाहिरी इताअत, ख़ुशूअ वो ख़ुज़ूअ और इनकिसारी को कहा जाता है........लिहाज़ा ईमान से मुराद तसदीक़ क़लबी और इस्लाम से मुराद ज़ाहिरी अमल है। (जामिउल उलूम वल हिकम, पेज नंबर 25)

हसन बसरी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

الْإِسْلَامُ وَمَا الْإِسْلَامُ؟ قَالَ:  الْإِسْلَامُ السِّرُّ وَالْعَلَانِيَةُ فِيهِ سَوَاءٌ أَنْ يُسْلِمَ قَلْبُكَ لِلَّهِ وَأَنْ يَسْلَمَ مِنْكَ كُلُّ مُسْلِمٍ وَكُلُّ ذِي عَهْدٍ

इस्लाम क्या है? यह कि आपका दिल अल्लाह के लिए ख़ालिस हो जाए, और आपसे हर मुसलमान और ज़िम्मी महफ़ूज़ हो जाये (मुसन्नफ़ इब्ने शैबा: 14/23, इसकी सनद सहीह है)

ज़ोहरी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाने बारी तआला: قَالَتِ الْاَعْرَابُ اٰمَنَّا١ؕ قُلْ لَّمْ تُؤْمِنُوْا وَ لٰكِنْ قُوْلُوْۤا اَسْلَمْنَا की तफ़सीर में फ़रमाते हैं:

نَرَى أَنَّ الْإِسْلَامَ الْكَلِمَةُ , وَالْإِيمَانَ الْعَمَلُ

हमारे मुताबिक़ इस्लाम कलिमा और ईमान अमल है (तफ़सीर अब्दुर्रज्ज़ाक़: 3/233-234, इसकी सनद सहीह है)

इमाम ज़ोहरी रहमतुल्लाह अलैह की मुराद यह है कि तौहीद व रिसालत की गवाही देने वाले को मुसलमान कहा जाता है, मुनाफ़िक़ आदि इसमें शामिल होते हैं, लेकिन ईमान सिर्फ़ उसी के मुक़द्दर में होता है, जो अमल करे और असल अमल तो दिल का है, इस तरह इमाम साहब का यह फ़रमान इस्लाम को ज़ाहिर और ईमान को बातिन से ख़ास करता है, लिहाज़ा इस्लाम को कलिमा कहना, लुग़वी तौर पर है, न कि शरअई ऐतबार से, क्यूंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हदीसे जिब्रील में और हदीसे इब्ने उमर में इसकी जो वज़ाहत की है, वो ज़ोहरी रहमतुल्लाह अलैह जैसे इमाम से छुपी हुई नहीं थी

शेख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं:

जब तौहीद व रिसालत की गवाही देने वाला हर शख़्स यहूद व नसारा से जुदा होकर मुसलमान बन जाता है और इस पर इस्लामी अहकाम जारी हो जाते हैं, तो बिना अपवाद इसी को बिलजज़्म इख़्तियार किया जाएगा, यही वजह है कि इमाम ज़ोहरी रहमतुल्लाह अलैह कहते हैं, इस्लाम कलिमा है, इमाम अहमद रहमतुल्लाह अलैह आदि ने उनकी मुवाफ़िक़त भी की है, उनकी मुराद यह न थी कि ज़रूरी इस्लाम सिर्फ़ कलिमा ही है, क्यूंकि ज़ोहरी रहमतुल्लाह अलैह जैसे शख़्स से यह छुपा रहना नामुमकिन है(मजमुअल फ़तावा: 7/415)

हिन्दी तर्जुमा: मुहम्मद शिराज़ (कैफ़ी)

 

 

 

 

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